Sunday, June 16, 2013

भाई छेद करोगे क्या?

डायरेक्टर मृगदीप सिंह की फुकरे कम बजट की फुल एंटरटेनिंग फिल्म है। इसमें स्कूल लाइफ से कॉलेज लाइफ में जाने वाले दो लड़कों की बेताबी को दिखाया गया है। फिल्म में बहुत से डायलॉग ऐसे हैं जो अक्सर दोस्तों के बीच बोले जाते हैं जिन्हें सार्वजनिक सुनने पर आपको हंसी आती है। दिल्ली की गलियों ने बनी यह फिल्म में ज्यादा दृश्य वैसे हैं जो कुछ दिनों पहले समाचारों और न्यूज चैनल्स पर छाए हुए थे।

स्टोरी-  दो दोस्त चूचा(वरुण शर्मा) और हनी(पुलकित सम्राट) स्कूल लाइफ से निकलने के पहले ही कॉलेज लाइफ की तैयारी में लग जाते हैं। चूंकि वो इतने तेज नहीं होते कि अपने बल पर वो किसी अच्छे कॉलेज में पहुंच जाएं। इस कारण वो जुगाड़ के जरिए वो ऐसा करने की सोचते हैं, जहां पैसों की आवश्यकता पड़ती है। इन पैसों के जुगाड़ में दोनों फंस जाते हैं और इनके साथ दो और ऐसे ही जरूरतमंद लड़के लाली (मनजोत सिंह) और जफर (जफर अली) फंस जाते हैं जिन्हें पैसों की आवश्यकता होती है। इस जुगाड़ में स्कूल लाइफ के दो दोस्तों में गजब कि केमेस्ट्री होती है। उनमें से एक सपना देखता है और दूसरा उस सपने से लॉटरी का नंबर निकलता है और ताजुब ये है कि वो ऐसा करके अकसर लॉटरी जीत जाते हैं। इसी ट्रिक से जुगाड़ लगाने में इन दोनों के साथ और दो लड़के फंस जाते हैं। चारों के बीच ही फिल्म की स्टोरी घुमती है।

एक सीन में दोनों स्कूली दोस्त साइकिल पर जाते रहते हैं कि हनी की नजर एक बॉलकनी पर पड़ती है, जिसमें एक लड़की खड़ी होती है। वह उसे घुरने लगता है। जब लड़की को इसका अहसास होता है तो वह अंदर चली जाती है। उसके अंदर जाने के बाद भी हनी उस बॉलकनी की तरफ घूरते रहता है तो उसका दूसरा दोस्त चूचा उसे बोलता है भाई छेद करोगे क्या?

ऐक्टिंग : हनी और चूचा के किरदारों में पुलकित सम्राट और वरुण शर्मा ने दर्शकों को खूब हंसाया है। मनजोत सिंह ने अपने रोल में कुछ खास नहीं किया है। अली जफर फिल्म में सिंपल दिखे हैं और उनका किरदार भी सिंपल ही रहा है। चौकीदार के रोल में पंकज त्रिपाठी ने खूब रंग जमाया है। इन चारों किरदारों पर अकेली भोली पंजाबन यानी रिचा चड्ढा कहीं ज्यादा भारी नजर आई हैं। अपने रोल से उन्होंने दर्शकों पर एक अलग छाप छोड़ी है।

संगीत: फिल्म के गाने अंबसररियाए रब्बा और कर ले जुगाड़ दर्शकों के जुबान पर छाए हुए हैं। राम संपत ने फिल्म की कहानी और इसके माहौल के मुताबिक अच्छा म्यूजिक दिया है।

क्यों देखें: फिल्म बहुत एंटरटेनिंग है। इसमें आप बोर नहीं होंगे।

Friday, June 14, 2013

बस परवाह है कुर्सी की!



किसी बच्चे से उसके खाने की पसंदीदा चीज पूछी जाए तो उसका क्या जवाब होगा? शायद उसका जवाब हम में से ज्यादातर लोग गेस कर लेंगे। (टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स या कोई ऐसा ही आइटम जो घर की बजाय दुकान पर मिलता है।) अगर मेरा अनुमान सही है तो आप को जरा उन बच्चों पर गौर करने की जरूरत है जो कि इन सब चीजों से कोशों दूर हैं। ये इन्हें खाना तो दूर इनका नाम तक नहीं ले पाते। क्योंकि टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स इनके पहुंच से बहुत दूर की बात है।

यह बात मैं जानता था कि ऐसी समस्या हमारे देश में है। मगर जब देखा तो खुद में बहुत अफसोस हुआ। आज भी हमारे देश में ऐसे बच्चे हैं जिनके पसंदीदा खाने की चीज में टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स न होकर दाल-भात है। एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में यह लाइव जानकारी मुझे मिली। यह किसी पिछड़े राज्य की स्टोरी नहीं थी बल्कि यह दिल्ली जैसे महानगर (मेट्रो सिटी) की बात है। अब आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि बाकि राज्यों की स्थिति कितनी विकराल होगी।
मैं यह बात इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मुझे ऐसे बच्चों की ज्यादा चिंता होने लगी है। बल्कि इसलिए कर रहा हूं कि खाद्य सुरक्षा बिल पर सरकार जितनी तेजी से कदम बढ़ा रही है उतनी ही तेजी से विपक्षी और अन्य पार्टियां अपने हित के लिए अपने कदम पीछे हटा रही हैं। क्या इन पार्टियों को कभी ऐसा नहीं लगता कि कभी कभी राजनीति को किनारे रखकर ऐसे जरूरी मामलों पर संजीदा से ठोस निर्णय लिया जाए। ताकि वैसे बच्चे या परिवार जिनको हर दिन पेट भरने के लिए सोचना पड़ता है उनके जीवन की राह थोड़ी आसान हो जाए।
मगर पार्टियों को इनकी चिंता क्यों होगी। उन्हें तो बस अपनी कुर्सी की चिंता होती है। वो बस अपने वोट बैंक का ख्याल रखते हैं। जिस माध्यम से वो अपने वोट बैंक का गांठ सकें। उनका ध्यान बस उसी तरफ होता है। कभी कभी तो मुझे यह सरकार और विपक्षी पार्टियां इतनी सवार्थी लगती हैं कि मुझसे इनसे घृणा होने लगती है। जिन्हें हर समय बस अपना स्वार्थ नजर आता है।

सरकार गुरुवार को खाद्य सुरक्षा बिल पर अध्यादेश लाने वाली थी मगर विपक्ष और साथी दलों के विरोध को देखते हुए सरकार ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी और अपने इस फैसले से पीछे हट गई। यह बड़े दुख की बात है।

सरकार को कुर्सी से ज्यादा उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए जिनके लिए खाद्य सुरक्षा बिल बहुत महत्वपूर्ण है। मगर इन्हें राजनीति से फुर्सत मिले तब न। आखिर ये सरकार चुनाव के समय ही इस बिल को क्यों लेकर आई। कहीं न कहीं सरकार चुनाव को ध्यान में रखे हुए है। इस मामले में केवल सरकार को दोष मढऩा सही नहीं है। सारे दोषी हैं! इसमें जनता कि किसी को परवाह नहीं है। बस परवाह है तो कुर्सी की और पार्टी की! और जब तक ऐसा रहेगा तब तक बेचारी जनता पिसती रहेगी। कभी घुन बनकर तो कभी गेहूं बनकर।

खाद्य सुरक्षा टलने के बाद की प्रतिक्रिया

'खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार है। हम इसे विधेयक के तौर पर ही लागू कराना चाहते हैं। लेकिन अध्यादेश भी तैयार है। हमने यह फैसला किया है कि हम विपक्षी पार्टियों से एक बार फिर इस पर बात करेंगे। यदि वे सहयोग करते हैं तो बिल को विशेष सत्र में पारित कराएंगे।'
पी. चिदंबरम, वित्तमंत्री
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'केंद्र सरकार को दस साल के बाद आज गरीब की याद आ रही है। उसकी नीयत पर शक होता है। गुजरात में पीडीएस के जरिए दस साल से गरीबों को दो रुपए किलो गेहूं, तीन रुपए किलो चावल उपलब्ध कराए जा रहे हैं। क्या यह खाद्य सुरक्षा नहीं है? कांग्रेस की सरकार महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही गरीब जनता के घाव पर नमक छिड़क रही है।'
नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री, गुजरात
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'हम इस महत्वपूर्ण विधेयक को संसद में ही पारित कराना चाहते हैं। लेकिन किसी भी विकल्प को हमने खारिज नहीं किया है। सपा की धमकी की वजह से हमने अध्यादेश का विकल्प टाला नहीं है। विकल्प अभी भी मौजूद है।'
-शकील अहमद, प्रवक्ता, कांग्रेस
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'खाद्य सुरक्षा विधेयक पर सरकार रोज नए नाटक कर रही है और इसका ठीकरा विपक्ष पर फोडऩा चाहती है। सत्ता के दो केंद्रों प्रधानमंत्री तथा सोनिया गांधी में इस पर मतभेद हैं। इसी वजह से यह विधेयक फंसा हुआ है। जयराम रमेश और शरद पवार को भी आपत्तियां थी, लेकिन उन्हें दरकिनार कर दिया गया है।'
-निर्मला सीतारमन, प्रवक्ता, भाजपा


Wednesday, June 5, 2013

 


 
केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के तहत लाने की क्या बात हुई सारी पार्टियां एकजुट होकर इसके विरोध में खड़ी हो गई। 
सबसे ज्यादा विवादास्पद बयान तो जदयू के अध्यक्ष शरद यादव ने दिया है। उनका कहना है कि हम परचून की दुकान नहीं चलाते, जो अपनी जानकारियों को सार्वजनिक करें। आखिरकार यह कहकर वह किसे परचून की दुकान बता रहे हैं। उन्हीं के अनुसार माना जाए तो वो सारे सरकारी विभाग, महकमें जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय भी शामिल है जो आरटीआई के तहत आता है, वो परचून की दुकान हैं। जब बात अपनी जानकारी की आई तो किसी पार्टी ने जनता की राय जानना वाजिब नहीं समझा। सबने अपने अनुसार ही इसे लोकतंत्र पर चोट बताया। राजनीतिक पार्टियां पहले से ही जनता के उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही हैं। जनता तो सीआईसी के फैसले के पक्ष में है। मगर पार्टियां बीच में जनता को लाकर ही अपना बचाव कर रही हैं। अब आप इसी से अंदाजा लगा लीजिए। आज जब संसद में पार्टियों के वेतन और भत्ते जैसे बिल पेश किए जाते हैं तो इस पर बहस की जरूरत नहीं पड़ती। बिल कब पास हो जाता है ये पता ही नहीं लगता। वहीं अगर कोई बिल जनता से संबंधित होता है तो इस पर इतनी लंबी बहस छिड़ जाती है कि संसद के कई सत्र निकल जाते हैं इस बिल का पास होने में। बात साफ है चिंता तो है मगर सिर्फ अपनी। अगर आपकी चिंता करते भी हैं तो वो इसलिए कि वो सत्ता में बने रहें। पार्टियां अपने को जनता का सेवक कहलाना पसंद करती हैं तो फिर जनता की बीच अपनी जानकारी सार्वजनिक करने से क्यों डरती हैं? मुझे नहीं लगता कि शायद इसकी जानकारी आपको नहीं होगी। सीआईसी के ताजा मामले ने एक बार फिर राजनीतिक पार्टियों के चेहरों की सच्चाई को उजागर कर दिया है।
सीआईसी के आरटीआई के तरह राजनीतिक पार्टियों को लाने के मुद्दे पर अलग-अलग पार्टियों के अलग अलग तर्क हैं वो इस प्रकार हैं-
कांग्रेस महासचिव जनार्दन दिवेदी ने कहा कि पार्टी सीआईसी के उस फैसले का अस्वीकार करती है जिसमें कहा गया है कि वह सूचना कानून के दायरे में आती है और उसे जनता को जवाब देना चाहिए।
वित्त मंत्री पी चिंदबरम ने कहा कि सीआईसी का फैसला विश्वसनीय तर्कों पर आधारित नहीं है।
पीएमओ में राज्यमंत्री वी. नारायणसामी ने कहा कि राजनीतिक दल सरकारी नहीं निजी संगठन हैं। ये आरटीआई के दायरे में नहीं आते।
भाजपा की तरफ से पार्टी प्रवक्ता कैप्टन अभिमन्यु ने सूचना आयोग के इस फैसले का मानने की बात कही। बाद में राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने सीआईसी के इस फैसले को सिरे से नकार दिया।
भाजपा उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी फैसले को लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने वाला बताया। वहीं वामपंथी भी भाजपा और कांग्रेस के सुर में सुर मिलाते दिखे।
माकपा महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि हमारी विचारधारा से सहमत लोग ही पार्टी के सदस्य बनते हैं। पार्टी की जवाबदेही सिर्फ उनके सदस्यों के प्रति है।
अलग अलग पार्टियों ने अपने तरफ से कई आपत्तियां दर्ज कराई हैं। किसी ने इस फैसले को लोकतंत्र पर चोट कहा तो किसी ने कहा कि आरटीआई कानून सरकारी दफ्तरों और संस्थाओं पर ही लागू हो। कुल मिलाकर जो बात सामने आई वो यही रही कि पार्टियां खुद को किसी ऐसे बंधन में नहीं रखना चाहती जहां से उनके इमेज को कोई नुकसान पहुंचे।