बस परवाह है कुर्सी की!
किसी बच्चे से उसके खाने की पसंदीदा चीज पूछी जाए तो उसका क्या जवाब होगा? शायद उसका जवाब हम में से ज्यादातर लोग गेस कर लेंगे। (टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स या कोई ऐसा ही आइटम जो घर की बजाय दुकान पर मिलता है।) अगर मेरा अनुमान सही है तो आप को जरा उन बच्चों पर गौर करने की जरूरत है जो कि इन सब चीजों से कोशों दूर हैं। ये इन्हें खाना तो दूर इनका नाम तक नहीं ले पाते। क्योंकि टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स इनके पहुंच से बहुत दूर की बात है।
यह बात मैं जानता था कि ऐसी समस्या हमारे देश में है। मगर जब देखा तो खुद में बहुत अफसोस हुआ। आज भी हमारे देश में ऐसे बच्चे हैं जिनके पसंदीदा खाने की चीज में टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स न होकर दाल-भात है। एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में यह लाइव जानकारी मुझे मिली। यह किसी पिछड़े राज्य की स्टोरी नहीं थी बल्कि यह दिल्ली जैसे महानगर (मेट्रो सिटी) की बात है। अब आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि बाकि राज्यों की स्थिति कितनी विकराल होगी।
मैं यह बात इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मुझे ऐसे बच्चों की ज्यादा चिंता होने लगी है। बल्कि इसलिए कर रहा हूं कि खाद्य सुरक्षा बिल पर सरकार जितनी तेजी से कदम बढ़ा रही है उतनी ही तेजी से विपक्षी और अन्य पार्टियां अपने हित के लिए अपने कदम पीछे हटा रही हैं। क्या इन पार्टियों को कभी ऐसा नहीं लगता कि कभी कभी राजनीति को किनारे रखकर ऐसे जरूरी मामलों पर संजीदा से ठोस निर्णय लिया जाए। ताकि वैसे बच्चे या परिवार जिनको हर दिन पेट भरने के लिए सोचना पड़ता है उनके जीवन की राह थोड़ी आसान हो जाए।
मगर पार्टियों को इनकी चिंता क्यों होगी। उन्हें तो बस अपनी कुर्सी की चिंता होती है। वो बस अपने वोट बैंक का ख्याल रखते हैं। जिस माध्यम से वो अपने वोट बैंक का गांठ सकें। उनका ध्यान बस उसी तरफ होता है। कभी कभी तो मुझे यह सरकार और विपक्षी पार्टियां इतनी सवार्थी लगती हैं कि मुझसे इनसे घृणा होने लगती है। जिन्हें हर समय बस अपना स्वार्थ नजर आता है।
सरकार गुरुवार को खाद्य सुरक्षा बिल पर अध्यादेश लाने वाली थी मगर विपक्ष और साथी दलों के विरोध को देखते हुए सरकार ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी और अपने इस फैसले से पीछे हट गई। यह बड़े दुख की बात है।
सरकार को कुर्सी से ज्यादा उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए जिनके लिए खाद्य सुरक्षा बिल बहुत महत्वपूर्ण है। मगर इन्हें राजनीति से फुर्सत मिले तब न। आखिर ये सरकार चुनाव के समय ही इस बिल को क्यों लेकर आई। कहीं न कहीं सरकार चुनाव को ध्यान में रखे हुए है। इस मामले में केवल सरकार को दोष मढऩा सही नहीं है। सारे दोषी हैं! इसमें जनता कि किसी को परवाह नहीं है। बस परवाह है तो कुर्सी की और पार्टी की! और जब तक ऐसा रहेगा तब तक बेचारी जनता पिसती रहेगी। कभी घुन बनकर तो कभी गेहूं बनकर।
खाद्य सुरक्षा टलने के बाद की प्रतिक्रिया
'खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार है। हम इसे विधेयक के तौर पर ही लागू कराना चाहते हैं। लेकिन अध्यादेश भी तैयार है। हमने यह फैसला किया है कि हम विपक्षी पार्टियों से एक बार फिर इस पर बात करेंगे। यदि वे सहयोग करते हैं तो बिल को विशेष सत्र में पारित कराएंगे।'
पी. चिदंबरम, वित्तमंत्री
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'केंद्र सरकार को दस साल के बाद आज गरीब की याद आ रही है। उसकी नीयत पर शक होता है। गुजरात में पीडीएस के जरिए दस साल से गरीबों को दो रुपए किलो गेहूं, तीन रुपए किलो चावल उपलब्ध कराए जा रहे हैं। क्या यह खाद्य सुरक्षा नहीं है? कांग्रेस की सरकार महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही गरीब जनता के घाव पर नमक छिड़क रही है।'
नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री, गुजरात
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'हम इस महत्वपूर्ण विधेयक को संसद में ही पारित कराना चाहते हैं। लेकिन किसी भी विकल्प को हमने खारिज नहीं किया है। सपा की धमकी की वजह से हमने अध्यादेश का विकल्प टाला नहीं है। विकल्प अभी भी मौजूद है।'
-शकील अहमद, प्रवक्ता, कांग्रेस
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'खाद्य सुरक्षा विधेयक पर सरकार रोज नए नाटक कर रही है और इसका ठीकरा विपक्ष पर फोडऩा चाहती है। सत्ता के दो केंद्रों प्रधानमंत्री तथा सोनिया गांधी में इस पर मतभेद हैं। इसी वजह से यह विधेयक फंसा हुआ है। जयराम रमेश और शरद पवार को भी आपत्तियां थी, लेकिन उन्हें दरकिनार कर दिया गया है।'
-निर्मला सीतारमन, प्रवक्ता, भाजपा
किसी बच्चे से उसके खाने की पसंदीदा चीज पूछी जाए तो उसका क्या जवाब होगा? शायद उसका जवाब हम में से ज्यादातर लोग गेस कर लेंगे। (टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स या कोई ऐसा ही आइटम जो घर की बजाय दुकान पर मिलता है।) अगर मेरा अनुमान सही है तो आप को जरा उन बच्चों पर गौर करने की जरूरत है जो कि इन सब चीजों से कोशों दूर हैं। ये इन्हें खाना तो दूर इनका नाम तक नहीं ले पाते। क्योंकि टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स इनके पहुंच से बहुत दूर की बात है।
यह बात मैं जानता था कि ऐसी समस्या हमारे देश में है। मगर जब देखा तो खुद में बहुत अफसोस हुआ। आज भी हमारे देश में ऐसे बच्चे हैं जिनके पसंदीदा खाने की चीज में टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स न होकर दाल-भात है। एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में यह लाइव जानकारी मुझे मिली। यह किसी पिछड़े राज्य की स्टोरी नहीं थी बल्कि यह दिल्ली जैसे महानगर (मेट्रो सिटी) की बात है। अब आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि बाकि राज्यों की स्थिति कितनी विकराल होगी।
मैं यह बात इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मुझे ऐसे बच्चों की ज्यादा चिंता होने लगी है। बल्कि इसलिए कर रहा हूं कि खाद्य सुरक्षा बिल पर सरकार जितनी तेजी से कदम बढ़ा रही है उतनी ही तेजी से विपक्षी और अन्य पार्टियां अपने हित के लिए अपने कदम पीछे हटा रही हैं। क्या इन पार्टियों को कभी ऐसा नहीं लगता कि कभी कभी राजनीति को किनारे रखकर ऐसे जरूरी मामलों पर संजीदा से ठोस निर्णय लिया जाए। ताकि वैसे बच्चे या परिवार जिनको हर दिन पेट भरने के लिए सोचना पड़ता है उनके जीवन की राह थोड़ी आसान हो जाए।
मगर पार्टियों को इनकी चिंता क्यों होगी। उन्हें तो बस अपनी कुर्सी की चिंता होती है। वो बस अपने वोट बैंक का ख्याल रखते हैं। जिस माध्यम से वो अपने वोट बैंक का गांठ सकें। उनका ध्यान बस उसी तरफ होता है। कभी कभी तो मुझे यह सरकार और विपक्षी पार्टियां इतनी सवार्थी लगती हैं कि मुझसे इनसे घृणा होने लगती है। जिन्हें हर समय बस अपना स्वार्थ नजर आता है।
सरकार गुरुवार को खाद्य सुरक्षा बिल पर अध्यादेश लाने वाली थी मगर विपक्ष और साथी दलों के विरोध को देखते हुए सरकार ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी और अपने इस फैसले से पीछे हट गई। यह बड़े दुख की बात है।
सरकार को कुर्सी से ज्यादा उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए जिनके लिए खाद्य सुरक्षा बिल बहुत महत्वपूर्ण है। मगर इन्हें राजनीति से फुर्सत मिले तब न। आखिर ये सरकार चुनाव के समय ही इस बिल को क्यों लेकर आई। कहीं न कहीं सरकार चुनाव को ध्यान में रखे हुए है। इस मामले में केवल सरकार को दोष मढऩा सही नहीं है। सारे दोषी हैं! इसमें जनता कि किसी को परवाह नहीं है। बस परवाह है तो कुर्सी की और पार्टी की! और जब तक ऐसा रहेगा तब तक बेचारी जनता पिसती रहेगी। कभी घुन बनकर तो कभी गेहूं बनकर।
खाद्य सुरक्षा टलने के बाद की प्रतिक्रिया
'खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार है। हम इसे विधेयक के तौर पर ही लागू कराना चाहते हैं। लेकिन अध्यादेश भी तैयार है। हमने यह फैसला किया है कि हम विपक्षी पार्टियों से एक बार फिर इस पर बात करेंगे। यदि वे सहयोग करते हैं तो बिल को विशेष सत्र में पारित कराएंगे।'
पी. चिदंबरम, वित्तमंत्री
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'केंद्र सरकार को दस साल के बाद आज गरीब की याद आ रही है। उसकी नीयत पर शक होता है। गुजरात में पीडीएस के जरिए दस साल से गरीबों को दो रुपए किलो गेहूं, तीन रुपए किलो चावल उपलब्ध कराए जा रहे हैं। क्या यह खाद्य सुरक्षा नहीं है? कांग्रेस की सरकार महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही गरीब जनता के घाव पर नमक छिड़क रही है।'
नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री, गुजरात
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'हम इस महत्वपूर्ण विधेयक को संसद में ही पारित कराना चाहते हैं। लेकिन किसी भी विकल्प को हमने खारिज नहीं किया है। सपा की धमकी की वजह से हमने अध्यादेश का विकल्प टाला नहीं है। विकल्प अभी भी मौजूद है।'
-शकील अहमद, प्रवक्ता, कांग्रेस
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'खाद्य सुरक्षा विधेयक पर सरकार रोज नए नाटक कर रही है और इसका ठीकरा विपक्ष पर फोडऩा चाहती है। सत्ता के दो केंद्रों प्रधानमंत्री तथा सोनिया गांधी में इस पर मतभेद हैं। इसी वजह से यह विधेयक फंसा हुआ है। जयराम रमेश और शरद पवार को भी आपत्तियां थी, लेकिन उन्हें दरकिनार कर दिया गया है।'
-निर्मला सीतारमन, प्रवक्ता, भाजपा
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