Friday, April 26, 2013

हद से ज्यादा हुआ खुलापन


वर्तमान समय में आप न्यूज चैनल देख रहे हों, अखबार पलट रहे हों या किसी समूह में हों, हर जगह बस एक ही खबर, एक ही मुद्दा चर्चा में है, बलात्कार, बलात्कार, बलात्कार। बलात्कार की घटनाएं आज नयी नहीं है यह वर्षों पहले से होती आ रही है। मगर आज इसकी चपेट में वो मासूम बच्चियां आ रहीं हैं जिनको दुनिया में आए अभी चंद वर्ष ही हुए हैं। जिनकी आयु को आप अपनी हाथ की अंगुलियों पर गिन सकते हो। हम आप सब इस जघन्य अपराध की घोर निंदा करते हैं और दोषी को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग करते हैं।

दिल्ली, नोएडा, एनसीआर, यूपी, हरियाणा, बिहार, झारखंड, पंजाब सहित देश का अधिकतर राज्य इस इसकी चपेट में हैं। आखिर इतने विरोध के बावजूद आए दिन ऐसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी ही क्यों होती जा रही है। हम सब मिलकर भी इस घिनौनी घटना को रोकने में असमर्थ क्यों दिख रहे हैं। हम लोगों से कहां चूक हो गई है जिसकी सजा इन मासूमों को भुगतनी पड़ रही है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम सब जान कर भी अनजान बने हुए हैं। भीड़ में शामिल होकर भी खुद को अलग मान रहे हैं। क्या जब हमारे साथ ऐसा कुछ होगा तभी हम समझेंगे? जिस देश में बालिकाओं को माता की तरह पूजा जाता है वहां अगर उनके साथ ऐसा हो रहा तो फिर...। यह आज समाज के लिए बड़ी चिंता की बात है। यह ऐसी चिंता है जो अब हमें अपनों पर भी विश्वास करने में शंका पैदा कर रही है।
आप देखेंगे कि आज के विज्ञापनों में बस एक ही चीज फोकस में है। और वो है हॉट लड़की। आप किसी भी प्रोडक्ट का विज्ञापन देख लीजिए, ज्यादातर में आपको लड़कियों को पटाने की बात होती है। क्रीम लगाओ तो लड़की पटेगी, डियोडरेंट लगाओ तो लड़की पटेगी, मंजन करो तो लड़की पटेगी। यूज का समान लड़कों का ही क्यों न हो मगर उस प्रोडक्ट को सामने लाने के लिए लड़कियों का ही सहारा लिया जा रहा है। आखिर ये दिखा कर ये कंपनियां अपना भला तो कर रही हैं मगर समाज को क्या संदेश दे रही हैं। क्या हमने कभी इस पर विचार किया है। हमारी मीडिया और समाज को आखिर क्या हो गया है? क्या जिंदगी का बस एक ही मकसद रह गया है 'लड़की पटाओ? ये सब देखकर हमारा समाज कहां जा रहा है?
आज समाज में युवा वर्ग पर उपभोक्तावादी संस्कृति हावी हो गई है। सीरियल्स/फिल्मों में आपत्तिजनक दृश्य बढ़े हैं। नाबालिग लड़के-लड़कियों पर पश्चिमी देशों का असर साफ दिख रहा है। उनमें छोटे उम्र में संबंध भी बन रहे हैं। स्कूल-कॉलेजों के समय में सुनसान जगहों पर जाने का प्रचलन बढ़ रहा है। कम उम्र में लड़कियां गर्भवती हो रही है। आत्महत्या की घटनाएं भी बढ़ गई हैं। ये सब समाज के पतन की ओर इशारा कर रहे हैं। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो हमारा भविष्य और अंधकारमय होगा। शायद यह बताने की जरूरत नहीं होगी।
इस बात को समझने के लिए आपको ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। आप बस अपने आस-पास के पार्क, रेस्टोरेंट या ऐसी एकांत जगह चले जाइए, जहां आम लोगों का आना जाना तो होता हैं मगर एक खास समय पर। वहां पर आपको अपनी नजर दौड़ाने की जरूरत है फिर आपको किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
एक ऐसी ही आंखों देखी घटना का जिक्र मैं आपके साथ कर रहा हूं जिसका मकसद बस आज के समाज में होते बदलाव दिखाना है। कुछ दिन पहले मैं दुर्गापूर गया था इस दौरान मैं वहां एक पार्क में गया। वहां जो देखा उसे आपसे साझा कर रहा हूं। वहां की बातों को बताकर आपको बस एक बहस में शामिल करना चाहता हूं कि क्या ये जो हो रहा है वह सही है? और अगर सही नहीं है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? और इसपर रोक कौन लगाएगा?

समय- सुबह के 11 बजे
दिन- बुधवार
स्थान - दुर्गापूर

मैं पार्क में बड़े उत्साह से अंदर बढ़ रहा हूं। कुछ अंदर जाने पर पार्क की सुंदरता बढ़ती जा रही है। तरह-तरह के फूल और पौधे पार्क की सुंदरता को बढ़ा रहे हैं। पार्क के बीचों बीच एक तालाब है, जिसमें बोटिंग की सुविधा है। तालाब के किराने लगे अशोक के पेड़ और उनके नीचे लगी कुर्सियां। ज्यादातर कुर्सियों पर कपल बैठे नजर आ रहे हैं जो एक-दूसरे मैं ऐसे खोये हैं जैसे वो किसी पार्क में नहीं बल्कि किसी रूम में बैठे हों। एक-दूसरे को आलिंगन करते ये जोड़े उम्र में काफी कच्चे दिख रहे हैं। इनमें कुछ लड़कियां ऐसी भी हैं जो स्कूल ड्रेस में हैं और साथ में उनके स्कूल बैग भी है। यह, यह बताने के लिए काफी है कि ये स्कूल बंक करके यहां पहुंची हैं। तालाब किनारे बने सीढिय़ों पर भी कई कपल बैठे हैं। पार्क की दीवार से सटे बैठे कुछ जोड़े ऐसे हैं जिनकी हरकतें बयां करना उचित नहीं होगा। इसमें से कई छात्राएं ऐसी हैं जो अपने चेहरे को दुपट्टे से ढकी हुई हैं।
इस पार्क में कई झूले लगे हैं जो इस ओर इशारा करते हैं कि यहां पारिवारिक लोग भी आते हैं। मगर इस टाइम पर कोई परिवार या अभिभावक नहीं दिखें जो अपने बच्चे के साथ यहां आये हों। इस समय यहां का नजारा ऐसा है जो किसी सभ्य इंसान को शर्मसार कर दे। फूलों और पेड़ों के पीछे छिपे कई कपल ऐसे हैं जिनकी हरकतें देखकर ईष्या हो रही है। समाज की सारी मर्यादाओं को ताक पर रखने वाले इन जोड़ों को कोई पछतावा नहीं है। सब अपने में खोये हैं। इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो खुलेआम बैठे ये सब कर रहे हैं।
मैं इन घटनाओं को आपके समक्ष रखकर बस यह पूछना चाहता हूं कि ये कहां तक सही है और आप इससे कहां तक सहमत हैं। आखिर स्कूल बंक कर पार्क में अपने प्रेमियों की बाहों में खोई इन लड़कियों को इस बात की जरा भी परवाह है कि कोई उन्हें उनकी पहचान का देख लेगा तो उसकी नजर में उनकी क्या पहचान बनेगी।
इतनी कम उम्र में इनकी इतनी खुली सोच और आजाद ख्यालात के लिए कौन जिम्मेदार है जो इन्हें यह सब करने की आजादी देता है। किसने इन पर ऐसा जादू कर दिया जो अपने आगे ये सबको बौना समझने लगे। ये ऐसे शख्स हैं जो अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए अपने अभिभावकों पर निर्भर हैं।

प्यार की अनूठी दास्ता है आशिकी-2


डायरेक्टर मोहित सूरी की फिल्म आशिकी 2 दर्शकों के बीच ऐसी समा बांधती है जिसमें शुरू से अंत तक थियेटर से बाहर आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता है। एक बार जो आप फिल्म से जुड़ते हैं तो यह सिलसिला अंत तक बदस्तूर जारी रहता है। फिल्म लव स्टोरी थीम पर आधारित है मगर इसकी लव स्टोरी कुछ अलग ही है जो इसे अन्य से जुदा करती है। अर्श से फर्श पर और फर्श से अर्श पर पहुंचे दो जवां दिलों की कहानी है 'आशिकी 2।


शुरुआत: खचाखच पब्लिक से चारों तरफ से घिरा बड़ा स्टेज और उस स्टेज पर गाता एक नशेड़ी सिंगर, जिसकी आवाज की दुनिया दीवानी है। इसमें कुछ ऐसे भी हैं जो इस सिंगर के विरोधी हैं और उससे जलते हैं। वे सिंगर पर हमला करते हैं। इस दौरान सिंगर और विरोधी लोगों में हाथापाई होती है। इस घटना के बाद सिंगर एक अनजान शहर में अकेले अपनी कार और शराब की बोतल के साथ निकल जाता है। रास्ते में अचानक एक लड़की उसके कार के सामने आ जाती है और वो उसे बचाने के चक्कर में अपनी कार को एक पेड़ से दे मारता है। इसके बाद वो तुरंत कार से उतरकर लड़की को सॉरी बोलता है और उसकी बिखरी हुई सब्जी को उठाने में उसकी मदद करता है, इस दौरान लड़की उसे बहुत कुछ बोलती है। फिर दोनों अपने अपने रास्ते चले जाते हैं। कुछ देर बाद फिर उनकी मुलाकात एक नाइट बार में होती है जहां लड़की सिंगर का काम करती है। यहां मिलने के बाद दोनों में एकतरफा प्यार हो जाता है फिर यहां से फिल्म दोनों के बीच सिमट जाती है। जिनके प्यार में दर्शक भी खो जाते हैं। फिल्म के अंत में दर्शक थोड़े मायूस होते हैं जब राहुल जयकर जिंदगी से हार कर मौत को गले लगाता हैं। हालांकि अपनी सोच में वो सही हो मगर जिंदगी में हार कर मौत को गले लगाना किसी बड़ी बेवकूफी से कम नहीं होता।

फिल्म में राहुल जयकर (आदित्य राय कपूर) और आरुषि (श्रद्धा कपूर) ने कमाल का अभिनय किया है। इनके काम में अन्य से हटकर कुछ नयापन दिखा है। आदित्य राय ने अपने आप को साबित किया है कि अगर उन्हें बेहतर कहानी मिले तो वो उसमें बेहतर कर सकते हैं। राहुल के किरदार में आदित्य राय कपूर पूरा डूबे नजर आए हैं। श्रद्धा के मासूम चेहरे ने जहां दर्शकों को मोहा हैं वहीं उनकी अदाकारी ने उनकी काबिलियत को साबित किया है।

फिल्म का संगीत एकदम नयापन लिए हुए है। मेरी जिंदगी तुम ही हो, सुन रहा है न तू जैसे शानदार गानों ने फिल्म को चार चांद लगा दिए हैं।

क्यों देखें: यह फिल्म प्यार में डूबी ऐसी चाशनी है जो आज के सभी दर्शक वर्ग को मीठा कर देगी। यह फिल्म देखना आपके लिए ऐसा अनुभव होगा, जिसे आसानी से भुला पाना मुश्किल होगा।

Friday, April 12, 2013

घटनाएं और पात्र वास्तविक हैं : नौटंकी साला
कहावत है न, नाम बड़े और दर्शन छोटे। यह कहावत भी अगर फिल्म पर फिट बैठ जाती तो बेहतर होता। मगर फिल्म इस कहावत के लायक भी नहीं है।
फिल्म की घटनाएं और पात्र काल्पनिक नहीं वास्तविक है, इस लाइन ने फिल्म की शुरुआत में दर्शकों को थोड़ा अचरज में डाल दिया, क्योंकि अभी तक तो सब कुछ काल्पनिक ही सुनते आ रहे थे। यह बदलाव फिल्म पर ध्यान केंद्रित करने को विवश करता है। मगर सवाल उठता है कब तक? तो कब तक का जवाब इतना बोरिंग और बकवास है कि समय का पता करते करते आपको कहीं नींद न आ जाए।
डायरेक्टर रोहन सिप्पी ने नौटंकी साला को इतना बोरिंग बना दिया है कि नौटंकी की शुरुआत से अंत तक अगर आप दो चार बार हंस लिए तो समझिए की बहुत हंस लिए। उन्होंने कुछ ज्यादा ही दिमाग का यूज किया है जो आम दर्शकों के लिए बेमतलब है। फिल्म में कहीं कहीं दो तीन दशक पुराने सुपर हिट गानों को कुछ म्यूजिक का तड़का लगाकर नए स्टाइल में पेश किया गया है। जो अच्छा लगता है।

फिल्म की कहानी की शुरुआत कहानी सुनाने से होती है और कहानी के खत्म होते ही फिल्म भी खत्म हो जाती है। कहानी में कथाकार के अनुसार उसका तीन महीने में तीन ब्रेकअप होता है, इस ब्रेकअप में उसकी प्रेमिका, एक नई प्रेमिका और उसका बेस्ट फ्रेंड शामिल होता है। इंटरवल तक फिल्म इतना रुलाती है कि कलाकारों के रोल को समझने में ही दर्शकों को समस्या आ जाती है। आयुष्मान खुरान (आर पी राम परमार) फिल्म में एक ऐसे किरदार की भूमिका में हैं जिसमें उनसे किसी का दुख देखा नहीं जाता। उन्होंने अपने काम को बेहतर अंजाम दिया है मगर लोगों को पसंद आए कहना मुश्किल है। डेल्ही बेली में अपनी कलाकारी से दर्शकों को लोप-पोट कर देनेवाले कुणाल राय कपूर ने इस फिल्म में बहुत सैड रोल में नजर आए हैं। और मंदाल के रोल में उन्होंने दर्शकों को भी सैड कर दिया है। वलन शर्मा और पूजा साल्वी अपने काम में रमी हुई दिखती हैं। फिल्म में थोडी़ देरी के लिए बीच में अभिषेक बच्चन नजर आए हैं मगर उनका नजर आना डायरेक्टर के लिए लक के सिवाय और कुछ नहीं है। जिसका फिल्म पर कोई असर नहीं दिखता।

क्यों देखें: साफ-सुथरी फिल्म है, मगर इसमें दो जगह दिखे किसिंग सीन कुछ ज्यादा ही लम्बे हैं। इस सीन को छोड़ दें तो फिल्म पारिवारिक है। फिल्म की शुरुआत में पतली जलती लाइटों में, सड़क के ऊपर लगे डिस्प्ले बोर्ड और सड़क किनारे लगे बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर डिस्प्ले होते फिल्म के कैरेक्टर नेम अन्य फिल्मों से एकदम जुदा और नया हैं, जो आपको प्रभावित करेंगे। आज के युवा रिश्तों में गिरती पेशेंस की कमी को भी दिखाया गया है। जो रिश्ते को बहुत जल्द किसी के कहने में बदल देते हैं।