Sunday, June 16, 2013

भाई छेद करोगे क्या?

डायरेक्टर मृगदीप सिंह की फुकरे कम बजट की फुल एंटरटेनिंग फिल्म है। इसमें स्कूल लाइफ से कॉलेज लाइफ में जाने वाले दो लड़कों की बेताबी को दिखाया गया है। फिल्म में बहुत से डायलॉग ऐसे हैं जो अक्सर दोस्तों के बीच बोले जाते हैं जिन्हें सार्वजनिक सुनने पर आपको हंसी आती है। दिल्ली की गलियों ने बनी यह फिल्म में ज्यादा दृश्य वैसे हैं जो कुछ दिनों पहले समाचारों और न्यूज चैनल्स पर छाए हुए थे।

स्टोरी-  दो दोस्त चूचा(वरुण शर्मा) और हनी(पुलकित सम्राट) स्कूल लाइफ से निकलने के पहले ही कॉलेज लाइफ की तैयारी में लग जाते हैं। चूंकि वो इतने तेज नहीं होते कि अपने बल पर वो किसी अच्छे कॉलेज में पहुंच जाएं। इस कारण वो जुगाड़ के जरिए वो ऐसा करने की सोचते हैं, जहां पैसों की आवश्यकता पड़ती है। इन पैसों के जुगाड़ में दोनों फंस जाते हैं और इनके साथ दो और ऐसे ही जरूरतमंद लड़के लाली (मनजोत सिंह) और जफर (जफर अली) फंस जाते हैं जिन्हें पैसों की आवश्यकता होती है। इस जुगाड़ में स्कूल लाइफ के दो दोस्तों में गजब कि केमेस्ट्री होती है। उनमें से एक सपना देखता है और दूसरा उस सपने से लॉटरी का नंबर निकलता है और ताजुब ये है कि वो ऐसा करके अकसर लॉटरी जीत जाते हैं। इसी ट्रिक से जुगाड़ लगाने में इन दोनों के साथ और दो लड़के फंस जाते हैं। चारों के बीच ही फिल्म की स्टोरी घुमती है।

एक सीन में दोनों स्कूली दोस्त साइकिल पर जाते रहते हैं कि हनी की नजर एक बॉलकनी पर पड़ती है, जिसमें एक लड़की खड़ी होती है। वह उसे घुरने लगता है। जब लड़की को इसका अहसास होता है तो वह अंदर चली जाती है। उसके अंदर जाने के बाद भी हनी उस बॉलकनी की तरफ घूरते रहता है तो उसका दूसरा दोस्त चूचा उसे बोलता है भाई छेद करोगे क्या?

ऐक्टिंग : हनी और चूचा के किरदारों में पुलकित सम्राट और वरुण शर्मा ने दर्शकों को खूब हंसाया है। मनजोत सिंह ने अपने रोल में कुछ खास नहीं किया है। अली जफर फिल्म में सिंपल दिखे हैं और उनका किरदार भी सिंपल ही रहा है। चौकीदार के रोल में पंकज त्रिपाठी ने खूब रंग जमाया है। इन चारों किरदारों पर अकेली भोली पंजाबन यानी रिचा चड्ढा कहीं ज्यादा भारी नजर आई हैं। अपने रोल से उन्होंने दर्शकों पर एक अलग छाप छोड़ी है।

संगीत: फिल्म के गाने अंबसररियाए रब्बा और कर ले जुगाड़ दर्शकों के जुबान पर छाए हुए हैं। राम संपत ने फिल्म की कहानी और इसके माहौल के मुताबिक अच्छा म्यूजिक दिया है।

क्यों देखें: फिल्म बहुत एंटरटेनिंग है। इसमें आप बोर नहीं होंगे।

Friday, June 14, 2013

बस परवाह है कुर्सी की!



किसी बच्चे से उसके खाने की पसंदीदा चीज पूछी जाए तो उसका क्या जवाब होगा? शायद उसका जवाब हम में से ज्यादातर लोग गेस कर लेंगे। (टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स या कोई ऐसा ही आइटम जो घर की बजाय दुकान पर मिलता है।) अगर मेरा अनुमान सही है तो आप को जरा उन बच्चों पर गौर करने की जरूरत है जो कि इन सब चीजों से कोशों दूर हैं। ये इन्हें खाना तो दूर इनका नाम तक नहीं ले पाते। क्योंकि टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स इनके पहुंच से बहुत दूर की बात है।

यह बात मैं जानता था कि ऐसी समस्या हमारे देश में है। मगर जब देखा तो खुद में बहुत अफसोस हुआ। आज भी हमारे देश में ऐसे बच्चे हैं जिनके पसंदीदा खाने की चीज में टॉफी, आइसक्रीम, बिस्कुट, चिप्स न होकर दाल-भात है। एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में यह लाइव जानकारी मुझे मिली। यह किसी पिछड़े राज्य की स्टोरी नहीं थी बल्कि यह दिल्ली जैसे महानगर (मेट्रो सिटी) की बात है। अब आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि बाकि राज्यों की स्थिति कितनी विकराल होगी।
मैं यह बात इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मुझे ऐसे बच्चों की ज्यादा चिंता होने लगी है। बल्कि इसलिए कर रहा हूं कि खाद्य सुरक्षा बिल पर सरकार जितनी तेजी से कदम बढ़ा रही है उतनी ही तेजी से विपक्षी और अन्य पार्टियां अपने हित के लिए अपने कदम पीछे हटा रही हैं। क्या इन पार्टियों को कभी ऐसा नहीं लगता कि कभी कभी राजनीति को किनारे रखकर ऐसे जरूरी मामलों पर संजीदा से ठोस निर्णय लिया जाए। ताकि वैसे बच्चे या परिवार जिनको हर दिन पेट भरने के लिए सोचना पड़ता है उनके जीवन की राह थोड़ी आसान हो जाए।
मगर पार्टियों को इनकी चिंता क्यों होगी। उन्हें तो बस अपनी कुर्सी की चिंता होती है। वो बस अपने वोट बैंक का ख्याल रखते हैं। जिस माध्यम से वो अपने वोट बैंक का गांठ सकें। उनका ध्यान बस उसी तरफ होता है। कभी कभी तो मुझे यह सरकार और विपक्षी पार्टियां इतनी सवार्थी लगती हैं कि मुझसे इनसे घृणा होने लगती है। जिन्हें हर समय बस अपना स्वार्थ नजर आता है।

सरकार गुरुवार को खाद्य सुरक्षा बिल पर अध्यादेश लाने वाली थी मगर विपक्ष और साथी दलों के विरोध को देखते हुए सरकार ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी और अपने इस फैसले से पीछे हट गई। यह बड़े दुख की बात है।

सरकार को कुर्सी से ज्यादा उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए जिनके लिए खाद्य सुरक्षा बिल बहुत महत्वपूर्ण है। मगर इन्हें राजनीति से फुर्सत मिले तब न। आखिर ये सरकार चुनाव के समय ही इस बिल को क्यों लेकर आई। कहीं न कहीं सरकार चुनाव को ध्यान में रखे हुए है। इस मामले में केवल सरकार को दोष मढऩा सही नहीं है। सारे दोषी हैं! इसमें जनता कि किसी को परवाह नहीं है। बस परवाह है तो कुर्सी की और पार्टी की! और जब तक ऐसा रहेगा तब तक बेचारी जनता पिसती रहेगी। कभी घुन बनकर तो कभी गेहूं बनकर।

खाद्य सुरक्षा टलने के बाद की प्रतिक्रिया

'खाद्य सुरक्षा विधेयक तैयार है। हम इसे विधेयक के तौर पर ही लागू कराना चाहते हैं। लेकिन अध्यादेश भी तैयार है। हमने यह फैसला किया है कि हम विपक्षी पार्टियों से एक बार फिर इस पर बात करेंगे। यदि वे सहयोग करते हैं तो बिल को विशेष सत्र में पारित कराएंगे।'
पी. चिदंबरम, वित्तमंत्री
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'केंद्र सरकार को दस साल के बाद आज गरीब की याद आ रही है। उसकी नीयत पर शक होता है। गुजरात में पीडीएस के जरिए दस साल से गरीबों को दो रुपए किलो गेहूं, तीन रुपए किलो चावल उपलब्ध कराए जा रहे हैं। क्या यह खाद्य सुरक्षा नहीं है? कांग्रेस की सरकार महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही गरीब जनता के घाव पर नमक छिड़क रही है।'
नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री, गुजरात
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'हम इस महत्वपूर्ण विधेयक को संसद में ही पारित कराना चाहते हैं। लेकिन किसी भी विकल्प को हमने खारिज नहीं किया है। सपा की धमकी की वजह से हमने अध्यादेश का विकल्प टाला नहीं है। विकल्प अभी भी मौजूद है।'
-शकील अहमद, प्रवक्ता, कांग्रेस
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'खाद्य सुरक्षा विधेयक पर सरकार रोज नए नाटक कर रही है और इसका ठीकरा विपक्ष पर फोडऩा चाहती है। सत्ता के दो केंद्रों प्रधानमंत्री तथा सोनिया गांधी में इस पर मतभेद हैं। इसी वजह से यह विधेयक फंसा हुआ है। जयराम रमेश और शरद पवार को भी आपत्तियां थी, लेकिन उन्हें दरकिनार कर दिया गया है।'
-निर्मला सीतारमन, प्रवक्ता, भाजपा


Wednesday, June 5, 2013

 


 
केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के तहत लाने की क्या बात हुई सारी पार्टियां एकजुट होकर इसके विरोध में खड़ी हो गई। 
सबसे ज्यादा विवादास्पद बयान तो जदयू के अध्यक्ष शरद यादव ने दिया है। उनका कहना है कि हम परचून की दुकान नहीं चलाते, जो अपनी जानकारियों को सार्वजनिक करें। आखिरकार यह कहकर वह किसे परचून की दुकान बता रहे हैं। उन्हीं के अनुसार माना जाए तो वो सारे सरकारी विभाग, महकमें जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय भी शामिल है जो आरटीआई के तहत आता है, वो परचून की दुकान हैं। जब बात अपनी जानकारी की आई तो किसी पार्टी ने जनता की राय जानना वाजिब नहीं समझा। सबने अपने अनुसार ही इसे लोकतंत्र पर चोट बताया। राजनीतिक पार्टियां पहले से ही जनता के उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही हैं। जनता तो सीआईसी के फैसले के पक्ष में है। मगर पार्टियां बीच में जनता को लाकर ही अपना बचाव कर रही हैं। अब आप इसी से अंदाजा लगा लीजिए। आज जब संसद में पार्टियों के वेतन और भत्ते जैसे बिल पेश किए जाते हैं तो इस पर बहस की जरूरत नहीं पड़ती। बिल कब पास हो जाता है ये पता ही नहीं लगता। वहीं अगर कोई बिल जनता से संबंधित होता है तो इस पर इतनी लंबी बहस छिड़ जाती है कि संसद के कई सत्र निकल जाते हैं इस बिल का पास होने में। बात साफ है चिंता तो है मगर सिर्फ अपनी। अगर आपकी चिंता करते भी हैं तो वो इसलिए कि वो सत्ता में बने रहें। पार्टियां अपने को जनता का सेवक कहलाना पसंद करती हैं तो फिर जनता की बीच अपनी जानकारी सार्वजनिक करने से क्यों डरती हैं? मुझे नहीं लगता कि शायद इसकी जानकारी आपको नहीं होगी। सीआईसी के ताजा मामले ने एक बार फिर राजनीतिक पार्टियों के चेहरों की सच्चाई को उजागर कर दिया है।
सीआईसी के आरटीआई के तरह राजनीतिक पार्टियों को लाने के मुद्दे पर अलग-अलग पार्टियों के अलग अलग तर्क हैं वो इस प्रकार हैं-
कांग्रेस महासचिव जनार्दन दिवेदी ने कहा कि पार्टी सीआईसी के उस फैसले का अस्वीकार करती है जिसमें कहा गया है कि वह सूचना कानून के दायरे में आती है और उसे जनता को जवाब देना चाहिए।
वित्त मंत्री पी चिंदबरम ने कहा कि सीआईसी का फैसला विश्वसनीय तर्कों पर आधारित नहीं है।
पीएमओ में राज्यमंत्री वी. नारायणसामी ने कहा कि राजनीतिक दल सरकारी नहीं निजी संगठन हैं। ये आरटीआई के दायरे में नहीं आते।
भाजपा की तरफ से पार्टी प्रवक्ता कैप्टन अभिमन्यु ने सूचना आयोग के इस फैसले का मानने की बात कही। बाद में राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने सीआईसी के इस फैसले को सिरे से नकार दिया।
भाजपा उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी फैसले को लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने वाला बताया। वहीं वामपंथी भी भाजपा और कांग्रेस के सुर में सुर मिलाते दिखे।
माकपा महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि हमारी विचारधारा से सहमत लोग ही पार्टी के सदस्य बनते हैं। पार्टी की जवाबदेही सिर्फ उनके सदस्यों के प्रति है।
अलग अलग पार्टियों ने अपने तरफ से कई आपत्तियां दर्ज कराई हैं। किसी ने इस फैसले को लोकतंत्र पर चोट कहा तो किसी ने कहा कि आरटीआई कानून सरकारी दफ्तरों और संस्थाओं पर ही लागू हो। कुल मिलाकर जो बात सामने आई वो यही रही कि पार्टियां खुद को किसी ऐसे बंधन में नहीं रखना चाहती जहां से उनके इमेज को कोई नुकसान पहुंचे।

Wednesday, May 22, 2013

बच्चे की कटिंग ने याद दिलाया बचपन


नन्हा सा बच्चा जब बाल कटिंग के लिए सैलून पहुंचा तो उसे देखकर हमें अपने बचपन की याद आ गई। यह याद और ताजा तब हो गई जब कटिंग के दौरान उसकी हरकतें अपने से मिलने लगी। नाई द्वारा चेयर पर पटरी लगा कर उसके ऊपर उसको बैठाना। गर्दन से नीचे शरीर को कपड़े से ढकना। यहां तक तो सब कुछ ठीक था। मजा तो इसके बाद से शुरू हुआ जब नाई बालक के गर्दन से सटे बालों को काटना शुरू किया। नाई जिधर कैंची करता बच्चा उधर अपना सर झुका लेता। नाई काटने की कोशिश करता बच्चा ऐसा करने नहीं देता। बच्चे को लगती गुदगुदी के आगे नाई बेचारा बेबस हो गया। वो बच्चे पर गुस्सा कर नहीं सकता था और कटिंग कर नहीं पा रहा था। स्थिति एकदम विचित्र सी हो गई थी। आखिरकार बच्चे के पापा को बीच में कूदना पड़ा। जब उन्होंने बच्चे को पकड़ा तब जाकर नाई अपने काम को अंजाम दे पाया। मगर इस पूरे घटनाक्रम में बच्चे की शक्ल देखने लायक थी। वो न तो हंस पा रहा था और न रो। इस घटना ने जहां हमारा मनोरंजन किया वहीं हमें हमारा बचपन भी याद दिला दिया जब हमें भी कटिंग के दौरान खूब गुदगुदी होती थी। और नाई चाह कर भी कटिंग नहीं कर पाता था। और अगर जबरदस्ती करने की कोशिश करता तो कहीं कहीं हमें कट जरूर लग जाती थी।

 मोबाइल उसे मिली, ज्यादा खुशी मुझे हुई

रुको भैया, रुको भैया, रुको भैया चिल्लता हुआ एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति अचानक रात के 1.15 बजे मेरी गाड़ी के आगे आ गया। उसके एक हाथ में बड़ी सी करछी और एक थैला था जो लगातार एक ही रट लगाए जा रहा था 'भैया उस ऑटो के पीछे चलो, उसमें मेरा मोबाइल रह गया है। इतनी रात में वह व्यक्ति हांफते हुए अपनी बात मेरे सामने रख रहा था जिस पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल हो रहा था। मगर उसकी स्थिति देख कर ऐसा लग नहीं रहा था कि वह झूठ बोल रहा है। चूंकि मैं आते समय उस ऑटो वाले को जाते हुए देखा था सो मैं उसकी मदद को तैयार हो गया।
वंदना बजाज के पास वह व्यक्ति मुझ से मदद मांग रहा था जहां से वह ऑटो नजर नहीं आ रहा था, जबकि वहां सड़क काफी दूर तक सीधी है। मैं इसकी परवाह न करते हुए उस व्यक्ति को लेकर तेज से उस दिशा में बढ़ा, जिधर ऑटो वाला गया था। करीब एक किलोमीटर जाने के बाद वह ऑटो वाला नजर आया, जो तेजी से भागा जा रहा था। उसे तेजी से भागता देख मैंने भी अपनी गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी। आखिर कुछ ही देर में वह ऑटो वाला हमारी पकड़ में था। वह हमें इस तरह पीछा करते हुए देख कर थोड़ा घबरा गया। जब हमने उससे फोन के बारे में पूछा तो उसने हां कहते हुए फोन ऑन करते हुए हमें देने लगा। जब मैंने उससे कहा कि जब तुम्हें फोन का पता लगा तो तुम वापस करने की बजाय भाग क्यों रहे थे। तो इस बात पर वह चुप हो गया। ऑटो वाले से फोन लेते हुए वह व्यक्ति बहुत खुश हुआ। वो बार बार मेरा धन्यवाद कर रहा था कि आप नहीं होते तो आज मेरा फोन नहीं मिल पाता। उसके फोन मिलने पर उससे ज्यादा खुशी मुझे हो रही थी। जिंदगी में ऐसे खुशी के पल बहुत कम ही आते हैं। मगर कोशिश करता हूं और करता रहूंगा कि ऐसी खुशी मिलते रहें।

वापस लौटते समय हम दोनों काफी खुश थे। वह व्यक्ति पेश से एक हलवाई है जो मेरे घर से कुछ ही दूरी पर रहता है। इस घटना से पहले मैं उसको नहीं जानता था और न ही वो मुझे। मगर इस घटना के बाद हम एक-दूसरे को जान गए। वह जाते जाते अपने साथ लाए मिठाई से मेरा मुंह मीठा करवाया।

आपको यह घटना बताने का मकसद अपनी तारीफ बटोरना नहीं है, बल्कि मैं आप से अनुरोध करना चाहता हूं कि जब भी आपके सामने ऐसी स्थिति आए तो आप सामने वाले की मदद एकदम बेहिचक करें। इससे जो आपको संतुष्टि और खुशी मिलेगी वो आप शब्दों में बयां नहीं कर पाएंगे।

Sunday, May 5, 2013

लीक से हटकर है मुंबई टॉकीज


हिंदी सिनेमा के 100 साल पूरे होने पर चार डायरेक्टरों (करण जौहर, जोया अख्तर, अनुराग कश्यप और दिबाकर बनर्जी) द्वारा निर्देशित बॉम्बे टॉकीज मूवी बिजली की वह छोटी-छोटी लडिय़ां हैं, जिसके जलते ही आप उसकी ओर स्वत: खींचे चले जाते हैं। इसके चारों पार्ट को समझने में आपको थोड़ी समस्या आ सकती है। फिल्म शुरुआत में आपको थोड़ी अटपटी भी लग सकती है।

कहानी की शुरुआत डायरेक्टर करण जौहर द्वारा निर्देशित फिल्म के पहले पार्ट से होती है। जिसमें देव (रणदीप हुड्डा) और गायत्री(रानी मुखर्जी) पति-पत्नी हैं। इन दोनों के बीच एक शख्स अविनाश(साकिब सलीम) आ जाता है, जिससे गायत्री को देव की हकीकत का पता चलता है।
डायरेक्टर दिबाकर बनर्जी द्वारा निर्देशित दूसरे पार्ट में पुरेंद्र (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) की पारिवारिक घटना है। इसमें पुरेंद्र अपनी बीमार बेटी को खुश करने के लिए हर दिन एक फिल्मी कहानी सुनाता है। इसी बीच एक दिन शूटिंग देखते पुरेंद्र को फिल्मी में एक छोटा सा सीन करने को मिलता है। इसे करने के बाद वो घर आकर उसमें थोड़ा और मिर्च-मशाला लगाकर अपनी बेटी को सुनाता है।
डायरेक्टर जोया अख्तर द्वारा निर्देशित तीसरी कहानी में विकी(नमन जैन) एक छोटा लड़का है, जो कैटरीना का दीवाना है। लड़कियों की तरह सजकर शीला की तरह डांस करना उसकी फितरत है।
डायरेक्टर अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित चौथी कहानी में विजय(विनीत कुमार यादव) की है। जो अपने पिता की बात रखने के लिए इलाहाबाद से मुंबई अमिताभ बच्चन को मुरब्बा खिलाने आता है। इस दौरान उसे कई प्रकार के कष्ट झेलने पड़ते हैं तब जाकर उसे इसमें सफलता मिलती है मगर...।

एक्टिंग : रानी मुखर्जी, रणवीर शौरी, विनीत कुमार यादव, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, नमन जैन, सुधीर पांडे, साकिब सलीम और सदाशिव अमरापुरकर ने अपने अपने किरदार में ऐसी जान डाली है जो एक्टिंग कम रियल ज्यादा लगती है। ऐसा लगता है कि ये किरदार नहीं, खुद भुक्तभोगी हैं।

संगीत : लग जा गले, अजीब दास्तां है ये जैसे गीत नए अंदाज में परोसे गए हैं जो आपको मदहोश कर देंगे।

क्यों देखें: कुछ नया देखना है तो बिना किसी से पूछे आप यह फिल्म देखने चले जाइए। चार डायरेक्टरों की फिल्म बॉम्बे टॉकीज एकदम लीक से हटकर है। यकीन मानिए इसे देखने के बाद आप इसकी डीवीडी अपनी लाइब्रेरी में रखना चाहेंगे। यह फिल्म आपको एक सटीक मैसेज देती है।

Thursday, May 2, 2013

बहुत एन्जॉय और मस्ती भरा
रहा डोंगरगढ़ का सफर



दिन- रविवार
समय- सुबह के पांच बजे
स्थान- रायपुर

हम पांच लोग(अविनाश, पूनम, सीमा, मोनी और मैं) शनिवार की शाम डोंगरगढ़ जाने की जोरदार प्लॉनिंग के वादे किए एक-दूसरे से विदा हुए। अगली सुबह के इंतजार में हम में से कई को अच्छे से नींद नहीं आई। जाने की बेकरारी में सुबह के पांच बजते ही हमारे कानों में एक-दूसरे की आवाजें आने लगी। सब एक ही मकान में रहते हैं इसलिए सबकी बेकरारी एक-दूसरे को पता लग रही थी। बस हममें अगर दूरी थी तो वो बस एक मंजिल ऊपर और नीचे की।
तभी अचानक भूचाल सा आ गया। हमारे खिले चेहरे मुरझा गए। जब हमें पता लगा कि पानी की टंकी में पानी ही नहीं है। पानी ऐसी चीज है, जिसके बिना सुबह की शुरुआत सही तरीके से नहीं हो सकती। जबकि हमें तो शुरुआत नहीं करना था बल्कि कहीं जाना था। अब इस विकट परिस्थिति में हमारा जाना लगभग कैंसल ही हो गया था। अविनाश तो प्लान को कैंसल मानकर पार्क जाने के लिए तैयार हो गए थे। वो पार्क जाने ही वाले थे कि पूनम के कहने पर मैं उन्हें देखने गया तो मामला समझ में आया। मैंने उन्हें रोका। मगर समझ तो मुझे भी नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए। क्योंकि सुबह में पानी 6.30 बजे आता है और डोगरगढ़ जाने वाली ट्रेन(शालीमार एक्सप्रेस) सुबह 6.45 में थी। आखिर अब क्या किया जाए ये प्रश्न हमारे सामने हमारी चिंता को बढ़ाए जा रहा था। तभी मैं अपने दोस्त के घर से नहा कर आने की बात कहा, मगर यह ठीक नहीं लगा। फिर हम सबने थोड़ा लेट चलने का प्लान बनाया। और साथ ही यह भी तय किया कि अब ट्रेन से नहीं बस से जाएंगे, मगर जाएंगे जरूर।
ऐसा प्लान करने के तुरंत बाद हम सब के चेहरे फिर से खिल गए और हम फिर से जाने की तैयारी में जुट गए। तभी अंकल जग गए और उन्होंने नीचे वाली टंकी में भरे हुए पानी को ऊपर चढ़ाने का उपाय बताया और हमने वैसा ही किया और जल्दी जल्दी सब कुछ करते हुए हम सब सुबह 6:35 तक तैयार हो गए। इसके बाद हम जल्दी से स्टेशन के लिए निकले। अविनाश और मोनी एक्टिवा से, मैं, सीमा और पूनम बाइक से स्टेशन की तरफ बढ़े। स्टेशन पहुंचते ही शालीमार ट्रेन लगी हुई दिखी। हमारे जल्दी जल्दी करने के बावजूद हम ट्रेन का नहीं पकड़ पाए और हम पीछे रह गए।
अब क्या किया जाए। फिर से हमने पानी नही होने के कारण बने दूसरे प्लान पर विचार किया और तय किया कि बस से चलते है। इस प्लान के फाइनल करते ही हम बस स्टैंड की तरफ बढ़े। मगर बस स्टैंड पहुंचकर हमें वहां भी मायूसी ही हाथ लगी। वहां जब हमने पता किया तो डोंगरगढ़ के लिए कोई बस नहीं थी। अब फिर वही बात आयी कि अब क्या किया जाए। फिर क्या था, पूनम के अनुसार जो लोकल ट्रेन सुबह 8:30 की है, जो रायपुर से डोंगरगढ़ जाती है अब हम उसी से जाएंगे। इस बात पर सभी ने हामी भरी, मगर अभी तो सुबह के 7 ही बजे हैं। अभी से स्टेशन पर जाकर हमलोग क्या करेंगे। तो मैंने कहा कि घर जाना अच्छा नहीं रहेगा, पूनम ने भी घर न जाने की बात का समर्थन किया। तभी मैंने सबसे मेरे ऑफिस चलने को कहा जो पंडरी बस स्टैंड के बगल में ही स्थित है। इस पर हम सबकी सहमति बन गई और सब ऑफिस के लिए चल दिए। ऑफिस पहुंच हम कुछ समय वहां बिताए। फिर कुछ देर बाद हम ऑफिस से स्टेशन के लिए निकले।
स्टेशन पहुंच कर हमने गाड़ी पार्किंग स्टैंड में पार्क की। सीमा, मोनी और मैं लोकल ट्रेन की तरफ बढ़े। वहीं, अविनाश और पूनम टिकट लेने के लिए टिकट घर की तरफ। चूंकि अभी 7:55 ही हुए थे सो हमारे पास कुछ टाइम बचा था। हम तीनों ने तुरंत ट्रेन में जाकर बैठने के बजाय स्टेशन पर बैठना उचित समझा। कुछ देर स्टेशन पर बैठने के बाद हमलोग ट्रेन की तरफ बढ़े। ट्रेन के पास पहुंच मैं दंग रह गया जब देखा कि ट्रेन में लोग भरे पड़े हैं। अब तो हमारे सामने एक ही सवाल, अब क्या करें?
मैंने कहा टेंशन मत लो एकदम आगे चलो। फिर हम बोगियों को छोड़ते हुए आगे बढऩे लगे। मोनी हर अगले डब्बे में चढऩे की बात कहती मगर मैं उसे आगे बढऩे को कहता। मोनी मेरे कहने पर आगे तो बढ़ रही थी मगर डब्बे में चढऩे की उसकी बेकरारी साफ झलक रही थी। आखिर हम तीनों 5वें डब्बे में चढ़ गए। चढऩे को तो हम सब चढ़ गए मगर इस डब्बे में भी जगह नहीं थी। ऐसा देख हम लोगों और आगे बढ़ते गए। जब हमलोग आगे से एक डब्बा पीछे थे तो हमें बैठने के लिए जगह मिली। मोनी और सीमा को सुकून मिला कि चलो अब हम बैठ गए। कुछ देर बाद अविनाश और पूनम भी आ गए। अविनाश और पूनम के आने के कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी। ट्रेन चलते के साथ एक झटके से रुकी। मगर फिर तुरंत ही चल पड़ी।
अविनाश, मोनी और मैं एक सीट पर और सामने वाली सीट पर पूनम और सीमा बैठे थे। इसी बीच पूनम और सीमा के पास एक पेयर आकर बैठा जो थोड़ा उम्रदराज दिख रहा था। महिला थोड़ी गुस्से वाली लग रही थी, जिसने बालों में गजरा लगा रखा था। गजरे में एक लाल गुलाब भी लगा था।
गजरे को देख हम लोगों को थोड़ी शैतानी सूझी। मोनी और मैंने सीमा और पूनम को चैलेंज किया कि अगर उस महिला के गजरे में लगा गुलाब निकाल दोगी तो हम मान जाएंगे। हमारे कहने के बाद पूनम और सीमा ने भरपूर कोशिश की मगर महिला के सतर्क होने के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए।
सफर के दौरान कई लोग ट्रेन में चढ़े और कई उतरे, जिनमें कुछ बच्चे भी थे। दो छोटे-छोटे भाई जगह न होने की वजह से हमारे बीच में आ गए और खिडक़ी तरफ बढकऱ बाहर का नजारा लेने लगे। दोनों में एक शरमा रहा था तो दूसरा बिंदास बाहर के नजारे में खोया हुआ था। कुछ ही देर में उसने मोनी से उसकी गोद में बैठने का परमिशन मांगी। परमिशन मिलते ही झट से वह मोनी की गोद में बैठ गया, जबकि दूसरा खड़े-खड़े अपने भाई के साथ बहार के नजारों के बाते करता दिखा। गोद में बैठे लडक़े के हंसने पर उसके गालों पर डिंपल बन रहा था जिसे देखकर मोनी को बहुत अच्छा लग रहा था।
सीमा अपने साथ लाए बोतल से पानी पी रही थी। उसके पानी पीने के बाद बारी बारी से हम सबने पानी पीना शुरू किया। जब मैंने बोतल लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो देखा कि पानी में कुछ ज्यादा ही बुलबुले नजर आ रहे थे जब मैंने ज्यादा ध्यान से देखा तो ये बुलबुले नहीं, बोतल के अंदर पानी में तैरती गंदगी थी, जिसे देखकर मैंने पानी नहीं पिया। चूंकि मोनी को बहुत प्यास लगी थी सो उसने सब कुछ जान कर भी पानी के कुछ घूंट पीए। अब बात आई कि आखिर बोतल में पानी किसने भरा था? तो पता लगा कि पानी किसी ने भरा नहीं बल्कि घर से निकलते समय पानी से भरा हुआ बोतल ही मिला था। सो पानी में गंदगी वाली बात यहीं समाप्त हो गई।
ट्रेन में बढ़ती भीड़ और चढ़ते दिन से गर्मी बढ़ती जा रही थी। ऐसे में प्यास लगना लाजमी था। ऐसे में एक स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो मैं पानी लेने के लिए उतरने लगा मगर ट्रेन में इतनी भीड़ थी कि मैं दरवाजे के पास वाली सीट पर होने के बावजूद नीचे नहीं उतर सका। फिर खिडक़ी से हमने एक सज्जन से पानी भरने के लिए कहा। उन्होंने हमारी बात मानी और बोतल में पानी भर दिया। मैंने उनका धन्यवाद किया। पानी मिलने के बाद हम सबने पानी पी कर अपने गले को तर किया।
ट्रेन में बैठे बैठे करीब 2.30 घंटे को गए थे हम मंजिल के करीब पहुंच चुके हैं और ट्रेन भी पहले से थोड़ी खाली हो गई है। जब हम डोंगरगढ़ स्टेशन से कुछ फासले पर रहे होंगे कि ट्रेन ने ब्रेक लगा दी। कुछ देर होने लगी तो मैंने पूनम से कैमरा मांगा और ट्रेन से बाहर उतर गया। मैंने वहां कुछ फोटो क्लिक की और अविनाश से कुछ फोटो क्लिक करने को कहा। उन्होंने कुछ फोटो क्लिक किया। तभी ट्रेन की सीटी बजी और हम फिर ट्रेन में चढ़ गए। इस बार ट्रेन चली तो डोंगरगढ़ स्टेशन पर आकर रुकी। हम सब उतरे और बाहर निकलने लगे। जब हम गेट पर पहुंचे तो महिला टिकट चेकर ने हमसे टिकट मांगा। टिकट किसके पास है वाली बात आई तो अविनाश गायब मिले जिनके पास टिकट थी। वो वॉशरूम चले गए थे। साइड में होकर हम सबने उनका इंतजार किया और उनके आने के बाद टिकट दिखाकर हम बाहर निकले। बाहर निकलते ही कुछ ऑटो वालों ने हमें घेर लिया और मंदिर ले जाने की बात करने लगे। जब मैंने उनके किराया पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, पर पैसेंजर 10 रुपए लगेंगे। मैंने एक ऑटो वाले को अपने साथ करते हुए उससे मोलभाव करने लगा। कुछ समझाने के बाद वो हमारे अनुसार चलने को राजी हो गया। ऑटो में हम उस स्थान पर पहुंचे जहां से माता के दर्शन के लिए चढ़ाई की शुरुआत होती है। यहां ऊपर चढऩे के लिए रोपवे की भी सुविधा है। रोपवे के बगल में एक छोटा सा तलाब है, जिसमें बोटिंग की सुविधा है। हमने रोपवे को पास से जाकर देखा तो वहां बहुत भीड़ थी। भीड़ देख हमने रोपवे से जाने का प्लान कैंसल कर दिया। हम सबने पैदल ही ऊपर चढऩे का निर्णय किया। और पैदल ही चढऩा शुरू किया।
मंदिर जाने के लिए जहां से चढ़ाई की शुरुआत होती है वहां पर एक बड़ा सा टीन का सेड बना हुआ। जहां कुछ जरूरी सुविधाएं है। वहां लडक़ी से निर्मित एक मंदिर का खाका है जो ग्लास से चारों चरफ से ढंका हुआ है। यह ढांचा भविष्य में ऊपरी स्थित मंदिर में आने वाले बदलाव का सूचक है। जो हमें यह बताता है कि भविष्य में निर्माण के बाद मंदिर का रूप ऐसा होगा। जैसे ही हम सब ऊपर चढऩे के लिए बढ़े वैसे ही लड़कियों ने दो मिनट में आने की बात कही। और वो चली गईं। दो मिनट का इंतजार ३५ मिनट तक चलता रहा। इस दौरान मैं और अविनाश जी कुछ सीढिय़ां चढ़ चुके थे जो उनके नहीं आने पर वापस उतर आए। इस दौरान कैमरे से हमने एक-दूसरे की कुछ तस्वीरें उतारीं। नीचे वापस आकर कुछ इंतजार के बाद वो हमें नजर आईं। हमने देखा कि इस दौरान उन्होंने अपने आप को कुछ सज्जा-संवार लिया है। ताकि फोटो लेने पर उनके मुखड़े बेहतर आएं। ऐसे वो सब तो ऐसे ही बेहतर दिखतीं हैं। उनके वापस आने के बाद मैंने उनकी कुछ फोटो क्लिक की जिसके बाद हम सबने चढ़ाई शुरू की।
कुछ ही ऊपर चढऩे में हम सबकी हालत पस्त होने लगी। तेज धूप और खड़ी सीढिय़ों ने हम सबका दम निकाल दिया। इस बीच पूनम को प्यास लगी मगर पानी हमारे पास पानी नहीं है। मैंने उसे थोड़ा और ऊपर चढऩे को कहा मगर और ऊपर चढऩे की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। बाकी सब धीरे धीरे ऊपर चढ़ रहे थे। पूनम को बिना पानी के मुश्किल आ रही थी। मैंने पूनम का हाथ पकड़ कर उसे थोड़ा और ऊपर चलने को कहा जहां थोड़ी छांव है। वहां पहुंच कर पूनम थोड़ी देर के लिए बैठी। जब वह थोड़ी रिलेक्स हुई तो फिर मैंने उसका हाथ पकडक़र उसे ऊपर ले जाने लगा। कुछ चलने के बाद हम वहां पहुंच गए जहां पानी और बैठने की व्यवस्था है। हमारे साथी वहां हमसे पहले ही पहुंच चुके हैं। हम सबने वहां पानी पी और थोड़ी देर आराम किए। इस दौरान अविनाश एक स्प्राइट की बोतल ले आए, जिसका हम सबने आनंद लिया। यह ड्रिंक हम सबको और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही अच्छी लगी। इसी बीच वहां एक फैमिली आई, जिसमें एक बहुत ही प्यारी बच्ची(समृद्धि) है। एकदम गोरी नारी, गोल मटोल चेहरा और बड़ी बड़ी प्यारी आंखें जिसे देखकर हम सब उसके दीवाने हो गए। हम सबने उस बच्ची के साथ फोटो खिंचाई। लास्ट में जाते जाते पूनम ने उसे एक टॉफी दी जो उसने कुछ घंटों से वो अपने पास संभाल कर रखी थी।
रूक रूक कर हम सब आखिर आधी चढ़ाई चढ़ गए। आधी चढ़ाई वाले स्थान पर भी लोगों के बैठने सुविधा है जहां लोग आराम कर सकते हैं। वहां हम भी थोड़ी देर रूके, जहां पर एक व्यक्ति ककड़ी बेच रहा था। हमलोगों ने उससे ककड़ी खरीदी और उस ककड़ी का मजा लिया। कुछ रूकने के बाद हम फिर चढऩे लगे। आधी चढा़ई के बाद की सीढिय़ों के ऊपर सेड लगा होने के कारण अब ऊपर चढऩे में बहुत राहत मिल रही थी। कुछ चढऩे के बाद हम माता के दरबार से कुछ पहले उस स्थान पर पहुंचे जहां निशुल्क जूता-चप्पल रखने की व्यवस्था है। साथ में वहां ठंडे पानी की भी व्यवस्था है। हम सबने वहां पहुंच जूते-चप्पल रखे और हाथ धोकर ऊपर की तरफ बढ़े।
आखिर धीरे-धीरे ही सही हम सब माता की कृपा से माता के दरबार में पहुंच गए। वहां पहुंच कर हम सबने माता के दर्शन किए। उसके बाद हमने बहुत सी फोटो क्लिक की। इस दौरान एक लडक़ा वहां पहले से फोटो क्लिक कर रहा था। उसने कहने पर हम सबकी ग्रुप में कुछ फोटो क्लिक की। जो हम चाह कर भी नहीं कर पाते। कुछ देर वहां रुकने के बाद हम वापस लौटे। वापस लौटने के क्रम मंदिर के कुछ ही नीचे नारियल फोडऩे की निशुल्क व्यवस्था है। जहां एक व्यक्ति नारियल को बहुत तेजी से तोडकऱ उसमें से गरी को अलग कर दे रहा था। हमने देखा कि इस दौरान कई नारियल ऐसे भी होते थे जो सड़े होते थे। हम सबने यहां अपने अपने नारियल फोड़वाए। सब नारियल में अविनाश द्वारा चढ़ाया गया नारियल बहुत मीठा था। जल्द ही हम यहां से भी नीचे की ओर बढ़ चले। इस दौरान हमने थोड़ा ध्यान नहीं दिया और उतरते समय गलत रास्ते का चुनाव कर बैठे। गलत रास्ते से उतरने के कारण हमारे पैर जले। जलते हुए पैरों को बचाने के लिए हम सब ऐसे भाग रहे थे जैसे हम सीढिय़ों पर नहीं किसी मैदान में भाग रहे हों।
जूते-चप्पल वाले स्थान पर पहुंच कर हम सबने जूते-चप्पल पहने और नीचे की तरफ बढ़ते रहे। नीचे आने के दौरान हम एक जगह रूककर कुछ फोटो लेने लगे तभी अचानक से फिर से वही लडक़ा नजर आया, जिसने ऊपर में हमारी फोटो खींची थी। हमने फिर से उससे कुछ फोटो खींचने को कहा। उसने इस बार में भी हमारी कुछ फोटो क्लिक की। मैंने उससे हाथ मिलते हुए उसका धन्यवाद किया। इस फोटो सेशन के बाद हम फिर से नीचे की ओर बढऩे लगे। नीचे उतरते समय सीमा, मोनी और पूनम कभी इस दुकान कभी उस दुकान करते। ऐसा करते हुए उन्होंने कुछ खरीदी। इस दौरान मैंने भी एक दुकान से 'की रिंगÓ खरीदी। इस दौरान खाना खाने को लेकर भी थोड़ी चर्चा हुई, जिसमें मोनी ने कहा कि मुझे तो बहुत भूख लगी है मैं तो दौड़ के, भाग के, उठ के, बैठ के हर तरह से खाऊंगी। वैसे तो भूख सभी को लगी हुई थी।
शुरुआत चढ़ाई वाली जगह आने पर हम लोगों थोड़ा आगे से घूमने की बजाय शार्ट रास्ते की तलाश की। ऐसा करते हुए मुझे एक शार्ट रास्ता दिखा जहां से मैं सबको लेता हुआ बाहर आ गया। बाहर आने के बाद रास्ते में जटा बिखराए बैठे एक बाबा दिखे जिसके बालों को लेकर मोनी ने कमेंट किया 'बाबा आपके बाल बहुत अच्छे हैंÓ। बाबा ने झट से मोनी को जवाब देते हुए थैंक्यू कहा। मोनी सहित हम सभी थोड़ी देर के लिए चकित हो गए, बाबा तो एडवांस हैं।
ऑटो स्टैंड पर पहुंच कर हमने स्टेशन के लिए एक ऑटो वाले से मोलभाव किया। उससे 40 रुपए में स्टेशन छोडऩे की बात हुई। मगर जिस ऑटो वाले से हमने बात तय की उसका नंबर नहीं होने के कारण हमें दूसरे ऑटो में स्टेशन के लिए बैठना पड़ा। जिस ऑटो में हम बैठे उसकी रफ्तार से ज्यादा तेज उसकी आवाज थी। ऐसा लग रहा था जैसे हम मौत का कुआं देख रहे हैं जहां मोटरसाइकिल की रफ्तार से कहीं ज्यादा उसकी आवाज होती। ऑटो में कैसे भी हिलते-डुलते सिर में चोट खाते हुए हम स्टेशन से करीब एक रेस्टोरेंट पहुंचे। स्टेशन से एकदम सटे होने और वहां का बेहतर रेस्टोरेंट होने के कारण खाना खाने के लिए हम वहां उतर गए। रेस्टोरेंट के अंदर पहुंच कर पूनम ने सभी को रेस्टोरेंट में ऊपर वाले तल पर चलने को कहा, क्योंकि पूनम इस रेस्टोरेंट में पहले भी आ चुकी थी। रेस्टोरेंट में पहुंचने पर पूनम ने खाने का बिल देने की बात कही। मैंने मना किया तो जिद््द पर आ गई कि बिल मैं ही दूंगी। जब ये बाते हुई उस समय अविनाश हाथ धोने गए थे।
रेस्टोरेंट में कुछ देर बैठने के बाद एक अंकल आए और आर्डर चार्ट देते हुए हमसे हमारा आर्डर पूछने लगे। मैंने उनसे आर्डर चार्ट लेते हुए थोड़ी देर में डिसाइड कर आर्डर देने की बात कही। कुछ देर में हमलोगों ने आपस में डिसाइड कर खाने का आर्डर दिया। इस बार आर्डर लेने के लिए अंकल नहीं एक लडक़ा आया। हमने उसे आर्डर में चावल, रोटी, सलाद, दाल और आलू -गोभी की सब्जी लाने को कहा। हमने उसे जल्दी से जल्दी खाना लगाने को कहा और ऐसा कहने का उसको कारण भी बताया कि हमारी ट्रेन(शताब्दी) चार बजे है, जिसे हमलोगों को पकडऩा है।
प्लेट लगाने के कुछ ही देर में वो हमारे द्वारा दिए गए ऑर्डर में शामिल सारी चीजों को ले आया। सामने खाना आते ही हम टूट पड़े और अपनी अपनी थाली में अपने अनुसार लेने लगे। खाना खाने के लिए हम जितना बेचैन थे खाना चखते ही मोनी, पूनम और मैं एकदम सुस्त हो गए। दाल और सब्जी हम तीनों को तीखी लग रही थी। क्योंकि भूख लगी हुई थी इसीलिए हम खा रहे थे। बीच में उस खाना देने वाले लडक़े(वेटर) ने हमसे पूछा कि और कुछ चाहिए तो हमने उसे लस्सी लाने के लिए कहा। मोनी ने लस्सी के लिए मना कर दिया। तो मैंने चार ग्लास लस्सी लाने का कहा। तभी उस लडक़े ने पूछा कि आप लोगों को कौन सी ट्रेन पकडऩी है। पूनम ने कहा शताब्दी। ऐसा सुनते ही उसने कहा कि शताब्दी तो आज है ही नहीं। उसकी बात सुन कर हम एक-दूसरे को देखने लगे। उस समय वह व्यक्ति भी वहां था जो हमसे पहले ऑर्डर लेने आया था। वो दिखने में रेस्टोरेंट का मालिक लग रहा था। हमने उससे बस के बारे में पूछा। तो उसने बस से जाने की बजाय ट्रेन को बेहतर बताया।
ऐसा मालूम होने के बाद हम लोगों ने आराम से खाना खाया और लास्ट में लस्सी पी। तय बात के अनुसार पूनम ने खाने का बिल चुकाया। चूंकि मुझे रायपुर पहुंच कर ऑफिस भी जाना था सो मैं थोड़ा टेंशन में था। बस की सुविधा कम होने और ट्रेन नहीं होने के कारण हमने पहले तय कि हम और अविनाश पहले स्टेशन जाकर ट्रेन का पता करेंगे फिर जैसा होगा उसके अनुसार जाने का प्लान बनाएंगे। मोनी, सीमा और पूनम को रेस्टोरेंट में छोडक़र हम और अविनाश स्टेशन की तरफ ट्रेन की जानकारी लेने के लिए चल पड़े। स्टेशन पहुंचने पर हमें पता लगा कि टिकट और ट्रेन संबंधी किसी भी जानकारी के लिए हमें स्टेशन के उस पारा जाना होगा।
मरता क्या न करता। हमारे पास भी अब उधर जाने के अलावा कोई और चारा न था। सो हम और अविनाश ओवरब्रिज से होते हुए उस पार गए। उस पार जाकर हम पूछताछ काउंटर पर गए जहां पर अविनाश के 10 बार से ज्यादा बोलने पर सामने वाले स्टॉफ ने ट्रेन की जानकारी दी। जानकारी के अनुसार शाम 5 बजे शालीमार ट्रेन थी। उससे पहले कोई ट्रेन नहीं थी। चूंकि चार से ज्यादा बज रहे थे इसी कारण हमने तय किया की हम शालीमार से ही जाएंगे। और फिर अविनाश ने रायपुर के लिए टिकट ली। टिकट लेने के बाद हम वापस स्टेशन के प्लेटफार्म संख्या दो और तीन पर आ गए जहां से हमें रायपुर के लिए ट्रेन पकडऩी थी। हमने फोन पर पूनम को रेस्टोरेंट से स्टेशन आने को कहा। हमारे फोन करने के कुछ देर बाद तक जब वो लोग नहीं आए तो मैंने फिर उन्हें फोन किया। तब पूनम ने कहा कि हम फोटो देख रहे हैं आते हैं। फिर कुछ देर में वो लोग आ गए। हम सब स्टेशन में अभी कुछ देर बैठे ही थे कि अचानक पूनम में कहा, अरे यार बोतल तो रेस्टोरेंट में ही छूट गया। मैंने कहा कि मैं जाकर लाता हूं। तो पूनम ने कहा नहीं, कोई जरूरत नहीं हैं इतने धूप में जाकर बोतल लाने की।
कुछ देर बाद पूनम ने कहा कि वो बोतल मेरे साथ हमेशा रहता था। मैं ऑफिस भी उसे लेकर जाती हूं। तब मैंने पूनम से कहा कि तुम और हम चलते हैं और बोतल लेकर आते हैं ज्यादा दूर नहीं है रेस्टोरेंट। पूनम ने कहा, ठीक है कुछ देर में चलते हैं। कुछ देर बाद सारे लोग रेस्टोरेंट जाने के तैयार हो गए। बहाना यह बना कि इसी बहाने बोतल भी आ जाएगा और टाइम भी पास हो जाएगा। फिर क्या था हम सब एक साथ रेस्टोरेंट की ओर चल पड़े। रेस्टोरेंट जाने के क्रम में एक ऑटोवाले ने हमसे मंदिर चलने के लिए पर सवारी 10 रुपए मांगे। तो मोनी ने उसे झट से जवाब दिया हमारे पास पैसे नहीं हैं। तो ऑटोवाले ने भी झट से मस्ती भरे अंदाज में एक मंदिर जाते हुए ऑटो वाले से कहा, 'इनको भी लेते जाओ इनके पास पैसे नहीं है।Ó यह बात सुनकर हम सब खूब हंसे।
रेस्टोरेंट पहुंच कर हम सबने पानी पी और अविनाश ऊपर वाले तल से जाकर बोतल ले आए जो रेस्टोरेंट वाले ने टेबल से उठा कर अंदर रख दिया था। रेस्टोरेंट से वापस आते समय टूरिस्ट प्लेस की बात छिड़ी तो मैंने कहा कि बीच पर बहुत मजा आता है। यह सुनते ही मोनी ने झट से मुझे पकड़ा और सीमा, पूनम और अपने बीच में कर दिया और बोली अब मजा आ रहा है न। इस बात पर भी हम सब खूब हंसे।
वापस स्टेशन आकर हम वहीं पर बैठे जहां पहले बैठे थे। बस अंतर इतना था कि साइड चेंज हो गया था। इस दौरान कुछ देर तक अविनाश और पूनम अपने सीए के टॉपिक पर चर्चा कर रहे थे वहीं मैं उनकी बातें सुन रहा था। उधर, सीमा और मोनी आपस में गप्पे मार रहे थे। तभी कुछ देर में समृद्धि जो हमें ऊपर चढऩे के दौरान मिली थी वह अपने परिवार सहित वहां आ पहुंची। कुछ देर के लिए हम सब का ध्यान फिर उसने खींच लिया। अब वो समय भी आ गया जब ट्रेन आ गई।
ट्रेन जहां रुकी वहां से हमें भागते हुए काफी पीछे जाना पड़ा। जैसे तैसे भागते हुए हम ट्रेन के स्लीपर कोच में चढ़े । हम जिस कोच में चढ़े वह एस 5 कोच था, जिसके दरवाजे के सामने दो टीटी खड़े थे। टीटी हमें पकड़ न ले इसलिए हम सबने प्लान किया कि हम बोगी में एक जगह नहीं बैठेंगे। इधर-उधर घूमते रहेंगे, जबकि हमने जनरल टिकट ले रखा था। आखिर फिर मैंने एक डब्बे में पहुंच कर सबसे वहां बैठने को कहा। फिर पूनम और सीमा एक तरफ और मोनी और हम ऊपरी वाली साइड बर्थ पर चढक़र बैठ गए, जबकि अविनाश दरवाजे पर खड़े रहे।
हमारे बैठे अभी कुछ ही देर हुए थे कि एक टीटी आ गया। टीटी ने हमसे टिकट की मांग की। मैंने उसे स्टॉफ होने की बात कही और फिर उसने दुबारा मुझसे टिकट की मांग नहीं की। इस बीच मैंने पूनम से अपना प्रेस आईकार्ड मांगा। मगर इसकी जरूरत नहीं पड़ी। कुछ देर बाद अविनाश भी आ कर बैठ गए। हम और मोनी ऊपर बैठे थे जहां मोनी को नींद आ रही थी। वो सोने लगी उसको देख मैं भी सोने जैसा होने लगा। नीचे देखा तो अविनाश और पूनम बातों में मशगूल मिले और सीमा पूनम के कंधे पर सर रखकर सोती दिखी। करीब 40 मिनट के सफर के बाद ट्रेन रुकी। कुछ यात्री इस दौरान उतरे, कुछ चढ़े। इसके बाद फिर ट्रेन चली तो एक और टीटी आ गया। उसने अविनाश से टिकट की मांग की। अविनाश उस टीटी से पहले वाले टीटी से सेटिंग होने की बात कही। टीटी ने अविनाश की बात पर यकीन करते हुए आगे बढ़ गया। कुछ देर बाद ट्रेन दुर्ग स्टेशन पर आ पहुंची। इस जगह हम ऊपर बर्थ से नीचे आ गए। जहां पहले बैठे थे वहां से एक सीट अंदर आकर सब एक साथ बैठ गए। जहां पर एक पिता-पुत्री पहले से बैठे हुए थे। पिता स्टेशन पर उतर कर कहीं चले गए और मैं भी पानी लेने के लिए ट्रेन से बाहर निकला। स्टेशन पर कहीं पानी की टूटी न देखकर मैं एक काउंटर से पानी की बोतल खरीदा। उस पानी से ही हम सबने अपने गले को तर किया।
गाड़ी अभी तक तीन बार रुक चुकी थी, जिसमें दुर्ग का तीसरा नंबर था। गाड़ी के बारे में मुझे यही मालूम था कि यह ज्यादा जगहों पर नहीं रुकती मगर गाड़ी का बार बार रुकना मुझे टेंशन देर रहा था क्योंकि मुझे 8 बजे तक ऑफिस पहुंचना था। इस दौरान मुझे एक छक्के(हिजड़ा) के आने का पता लगा। मैं जल्दी से स्थिति को समझते हुए सोने के लिए मैं ऊपर की बर्थ पर लपका। मगर मेरे ऊपर पहुंचते तक वह मेरे पास आ चुका था। आते ही उसने मुझे से पैसे की डिमांड की। मैंने अविनाश को अपना मालिक बता कर उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश की। मगर वह नहीं माना, उसने फिर भी मुझसे पैसे की मांग की। मगर फिर भी मैंने अविनाश को ही अपना मालिक बता कर उससे ही पैसे मांगने की बात कही। आखिर में वो अविनाश के पास गया। अविनाश ने उसे बड़े प्यार से उसके साथ आगे जाने वाले दोस्त को पैसे देने की बात कही। ऐसा सुन उसने अविनाश से भी दुबारा पैसे नहीं मांगे और आगे की ओर बढ़ गया।
उसके जाने के बाद मैं फिर से नीचे आ गया। मुझे ऑफिस जाने का टेंशन था। मगर मोनी की बातें टेंशन को दूर कर रही थी। उसकी लगभग सभी बातों से हम सबको हंसी आ रही थी। उसकी बातें ही कुछ ऐसी थी जो गुपचुप और चाट की तरह मसालेदार और चटपटी थी। ऐसे ही बातों में मजे करते करते हुए हम सब भिलाई पहुंच गए। हमारे साथ बैठे पिता-पुत्री का यही पर उतरना हुआ। लडक़ी ने उतरते हुए पूनम, सीमा और मोनी को बाय कहा। जवाब में  इन्होंने भी उसे बाय कहा मगर इसमें अविनाश भी शामिल हो गए और उन्होंने भी लडक़ी को बाय बोला। ऐसा सुनते ही अविनाश को घेरते हुए सबने पूछा बहुत जल्दी ट्रेन में दोस्ती कर लेते हो।
भिलाई पहुंचने पर हमारे सामने वाली सीट पर दो और लड़कियां आ बैठी। उनके परिवार के कई सदस्य उन्हें छोडऩे के लिए स्टेशन आए थे। मगर हम सब उन्हें इग्नोर कर अपनी बातों में लगे रहे। भिलाई से कुछ आगे बढऩे पर ट्रेन एक जगह कुछ ज्यादा देर के लिए रुक गई। इस दौरान मुझे फिर टेंशन होने लगी कि कहीं ऑफिस के लिए ज्यादा लेट न हो जाऊं। मगर एक ट्रेन की क्रासिंग के बाद हमारी ट्रेन चल पड़ी। इस बार जो ट्रेन चली वो सीधे रायपुर स्टेशन में ही आकर रुकी। करीब रात के 8 बजकर 7 मिनट पर हम रायपुर स्टेशन पहुंचे। यहां से हमलोग शॉर्टकट रास्ते से स्टेशन से बाहर निकले, जहां से पार्किंग पास में थी।
सीमा, पूनम और मोनी को एक जगह पर रहने का बोलकर हम और अविनाश जल्दी से पार्किंग की बढ़े। इस दौरान अविनाश का घर से फोन आ गया और कन्फ्यूजन में स्टेडियम का स्टेशन सुन वो सब कुछ उसी समय बता दिया जो अभी तक घरवालों को नहीं बताया था। इस स्थिति में तो बस एक ही बात लागू होती है कि जाना था जापान, पहुंच गए चीन. . . समझ गए ना।
बाद में जब मुझे इस बात का पता लगा तो मुझे भी बहुत हंसी लगी। हंसते हंसते जल्दी से हमने पार्किंग से गाड़ी निकाली। बाहर आकर मोनी, सीमा और मैं एक गाड़ी पर वहीं अविनाश और पूनम एक गाड़ी पर एक साथ घर की तरफ बढ़े । सीमा, मोनी को घर छोडक़र मैं जल्दी से ऑफिस के लिए निकल गया।

डोंगरगढ़ सफर का अनुभव: बहुत एन्जॉय और मस्ती भरा रहा हमलोगों का ये डोंगरगढ़ का सफर। भविष्य में भी हम लोग फिर कहीं एक साथ जा सके ऐसी तमन्ना है। अब भविष्य ही बताएगा कि ऐसा हो पाएगा या नहीं।