बासल भुलाए न भूलने वाला कल, जो आज भी लगता है कि कल की ही बात है। 1983 में मेरा जन्म इसी बासल नगरी में हुआ। काफी उतार-चढ़ाव के बीच जीवन का सफर शुरू हुआ। मेरे पापा इसी बासल फैक्ट्री में कर्मचारी थे। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। कई साल गुजर गए। इस गुजरते साल के साथ 1997 भी आ गया। मगर ये साल हमारे लिए नहीं बल्कि पूरे बासल नगरी के लिए कहर बनकर आया और देखते ही देखते सारे खुशियों का निगल गया। इस साल बासल फैक्ट्री बंद हो गई और सारे कर्मचारी, अधिकारी से लेकर वे सारे लोग जो इस फैक्ट्री से जुड़े थे सड़क पर आ गए। सड़क पर आने के बावजूद लोगों को इस फैक्ट्री से आस लगी रही। लोगों को लगता रहा कि ये फैक्ट्री बंद नहीं रह सकती। पान की दुकान से इस फैक्ट्री की तुलना करते लोग यह बोलते नहीं थकते थे कि यह बंद नहीं रह सकती। यह कहते-कहते लोग संघर्ष करते रहे, मगर परिणाम जस का तस रहा। फैक्ट्री बंद रही और कई साल लोग ऐसे ही गुजार दिए। कहते हैं आशा पर जिंदगी टिकी है। कुछ ऐसा ही यहां के लोगों के साथ हुआ। आशा कब निराशा में बदल गई पता ही नहीं चला, निराश लोग अब यहां से अपना समान समेट जाने लगे, इस बीच मैं अपने पिता को खो दिया, और मैं भी निराश हो कर बासल को अलविदा कह दिया। पिता को खोने के तीन साल बाद तक मैं बासल में रहा। उसके बाद मैं रांची आ गया और रांची से फिर मीडिया में। और अभी दिल्ली में हूं। मगर आज भी बासल की बहुत याद आती है। आज के बासल और बीते हुए बासल में बहुत अंतर है। आज का बासल 'जिंदल स्टील प्लांटÓ के नाम से जाना जाने लगा है। और वहां की स्थिति पहले से बिल्कुल जुदा हो गई है। सब कुछ बदल गया है केवल पुरानी फैक्ट्री, सेक्टर-1, सेक्टर-2, हनुमान मंदिर और मेरे स्कूल (डीएवी बासल विद्या मंदिर) को छोड़कर सबकुछ बदल गया है। हालांकि ये सब में भी बदलाव हुआ है मगर ये अभी वैसे ही हैं जैसे पहले थे। बस इनमें चमक आ गई है। बच्चपन की सारी यादें इस जगह से जुड़ी है जो भूलाए नहीं भूलती। बस ये सुनकर अब बहुत अच्छा लगता है कि वहां पहले जैसी रौनक आ गई है और लोगों को फिर से रोजगार मिल रहा है। पुराने लोगों ने जो खोया है, मैंने जो खोया है अब किसी किमत पर हासिल नहीं किया जा सकता। बस अब यही आशा है की आगे कभी यहां आने वाले लोगों को बासल जैसी संकट का सामना न करना पड़। -जीतेंद्र कुमार सिंह
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment